Monday, June 25, 2007

मेरा चिन्तन




मेरा चिन्तन

मानस के अंतःपटल पर

पर उठते चिन्तन

मैं कौन हूँ?

मैं कहाँ हूँ?

मैं क्या हूँ?

से परे

सतही चिन्तन के पार

एक अस्तित्व का प्रश्न

क्या मैं हूँ?

Tuesday, June 19, 2007

मैं मुक्त हो गई

मन भटका था. तब मैं १७ साल की थी. घर पर माँ, पिता जी और एक छोटा भाई था. हम गाँव मे रहते थे. घर में यूँ तो कोई आभाव नहीं था मगर अथाह भी नहीं था. ग्रमीण परिवेश में शायद लड़कियाँ देर से बड़ी होती हैं. जो कुछ शहर की लड़कियाँ १०-१२ साल की उम्र में जान जाती है, गाँव की लड़कियाँ उसी बात को १६-१७ वर्ष की आयु में भी ठीक ठीक नहीं समझ पाती.

हमारे पड़ोस में रहने वाले मिश्रा जी, जो कि गाँव के प्रधान भी थे, का लड़का योगेश बम्बई में रहकर उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहा था. शायद उस वक्त वो २०-२१ साल का रहा होगा. छुट्टियों में घर आता था. शहरी राग रंग, पिता के पैसों का रोब, शहर के तौर तरीके. वो मुझे बहुत आकर्षित करता था. कभी मैने उससे बात नहीं की और न ही उसने मुझसे. दिखने में, जैसा की लोग बताते हैं, मैं भी काफी सुंदर हूँ. बस कभी खिड़की से और कभी छत से उसे देखा करती थी. उसके गाँव आने का इन्तजार भी रहता था.

कब उसकी शादी हो गई. फिर मेरी भी शादी हो गई थी. बहुत समय तक उस आकर्षण से मुक्त नहीं हो पाई. जीवन के किस किस दौर से गुजरी मगर वो आकर्षण की गठान कभी कमजोर नहीं पड़ी. हमेशा मुझ पर हावी रहती.

हिमालय में किसी अद्वितीय अदृश्य शक्ति ने मेरी मदद की और मैं मुक्त हो गई. कितना हल्का महसूस किया था उस रोज मैने. मुझे लगता है न जाने कितने ही लोग इस तरह की कुछ गांठे अपने साथ लिये पूरा जीवन गुजार देते हैं. आत्मा पर एक बोझ लिये इस दुनिया से चले जाते हैं.

Friday, June 15, 2007

मेरा भविष्य




चिंतन की तूलिका से
घोर उदासी के आलम में
अपने मानस पटल को
जीवन का केनवास मान
मैने चंद आड़ी तिरक्षी रेखायें
खींच दी थीं
और अंकित कर दी थीं
अनेकों आकृतियाँ
मेरी बैचनियों के रेखा चित्र..

आज उन्हें बांचकर
वो मेरा भविष्य
बता रहे हैं
मेरी स्व-रचित कुंडली
में छिपे राज
आज बाहर आ रहे हैं.

---क्या मैं खुद को कभी जान पाऊँगी!!

Thursday, June 14, 2007

नज़रिया सब कुछ है

जिन्दगी को बहुत करीब से देखा है. कभी गाँव की पगडन्डियों पर धूप में नंगे पांव चलते और कभी महानगरों की जगमगाती सुंदर किन्तु नागिन सी बल खाती सड़कों पर सरपट भागते. कितनी सुखद अनुभूतियाँ और कितने विशाद के क्षण. फिर सबसे दूर हिमालय की कंदराओं में एक नई 'मैं' की तलाश. कब तक भाग सकती थी यथार्थ से. फिर लौटी तो पाया सब कुछ वैसा ही है, बदला है तो उन्हें देखने का मेरा नज़रिया. बस, एक नज़रिया बदल जाने से ही सब कुछ बदल गया. वही सड़कें, वही लोग, वही घूरती आँखें मगर अब वो मुझे नहीं चुभती. मेरा नज़रिया बदल गया है उन्हें देखने का और कुछ भी नहीं. पिछले चार माह से अपनी सोच को और विस्तार दिया. अन्तरजाल पर आई. नये मित्र मिले. नई बातें सुनने और पढ़ने को मिली. हिन्दी के ब्लॉगस दिखे. लगभग सभी को पढ़ा, मनन किया और कुछ को तो अभी भी समझने की कोशिश अनवरत जारी है. लोगों के विचारों को देख रही हूँ, परख रही हूँ. आज इसी दिशा में एक कदम बढ़ाया है कि आपसे संवाद स्थापित हो सके.