Wednesday, October 8, 2008

चिर मौन!!

बेखौफ
वैभवशाली
किन्तु
गंभीर और मौन...
तन पर
अरमानी का मँहगा सूट
और
उनसे उठती
फ्रांसीसी परफ्यूम की
उत्तेजक महक
की अनकही आवाज!!
सबने सुनी
सबने गुनी
सब साथ हो लिए....

घबरा हुआ वो
आँख में आसूं लिए
बदबूदार
चिथड़ों में लिपटा
भूख से परेशान
दो रोटी के लिए
चीख चीख कर
आवाज लगता रहा..
न जाने क्यूँ!!

उसकी आवाज
किसी भी कान ने
न सुनी..
या कि सुन कर भी
अनसुनी कर दी!!

वो चिल्लाते चिल्लाते
मौन हो गया..
चिर मौन!!

Tuesday, September 30, 2008

साँस की लूट

दो मुक्तक प्रस्तुत कर रही हूँ.



-१-

लिख रहे हैं जिन्दगी के रुप को
रोज होती सांस की इस लूट को
देखते ही देखते सब चुक गया
ढो रहे हैं हड्डियों के ठूंठ को.

-२-

देखती हूँ रोज अपने राम को
और उसमें ही बसे रहमान को
बांटते हैं धरम के जो नाम पर
क्या सजा दें आज उस शैतान को.



नवरात्रे की मंगलकामनाऐं.

Sunday, September 28, 2008

तय करो किस ओर हो

तय करो किस ओर हो
इस ओर हो, उस ओर हो.

बातों को मनवाना हो तो
तर्कों में कुछ जोर हो.
या फिर
कुछ ऐसा कर जाओ कि
सदियों तक उसका शोर हो.

तय करो किस ओर हो
इस ओर हो, उस ओर हो.

Thursday, August 28, 2008

चिट्ठाकार की टिप्पणी हड़ताल!

दृश्य १:

तहसील कार्यालय में रामाधार तिवारी और श्रीपद पटेल लिपिक पद को शोभायमान करते हैं. उनसे मिलने मैं जब भी किसी काम से तहसील कार्यालय गई, दोनों मुझे अधिकतर कार्यालय के बाहर ही, कभी पान की दुकान पर या कभी चाय की चुस्कियाँ लेते मिले. कम ही ऐसा होता कि मुझे उन्हें मिलने कार्यालय के अंदर तक जाना पड़े.

आज भी हमेशा की तरह ही वो दोनों बाहर ही मिल गये. फरक सिर्फ यह था कि चाय-पान की दुकान के बदले आज वो एक तंबू के नीचे तख्त डाले बैठे थे. पता चला कि किसी बात से नाराज दोनों हड़ताल पर हैं.

मैं तहसीलदार से मिली. उसे उनके हड़ताल के विषय में अधिक जानकारी ही नहीं थी और न ही वो इससे विचलित नजर आया. मैने उनसे आश्चर्य से पूछा भी कि आप जरा भी विचलित नहीं दिखते, काम के हर्जाने की चिंता नहीं है आपको?

वे मुस्कराते हुए कहने लगे कि क्या हर्जाना? वो तो वैसे भी कोई काम नहीं करते थे. कभी कर दिया तो मानिये अहसान हो गया. उल्टा उनके हड़ताल पर चले जाने से बाकी लोगों का काम बिना अड़ंगे के चल रहा है.

मैं तो दंग रह गई ऐसी व्यवस्था की हालत को देखकर.

मगर मेरे दंग रह जाने से क्या अंतर पड़ जाने वाला है, सब वैसा ही चलता रहेगा.

-----

दृष्य २:

सुना है दो चिट्ठाकार टिप्पणी हड़ताल पर हैं.

मैने एक वरिष्ट चिट्ठाकार से पूछा कि कहानी क्या है?

वो हँसते हुए कहने लगे-क्या कहानी? वही दृष्य १ वाली!!

मैं तो फिर दंग रह गई.
मगर मेरे दंग रह जाने से क्या अंतर पड़ जाने वाला है, सब वैसा ही चलता रहेगा.
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कृप्या बुरा न मानें, यह बस मेरे दिल की बात है. किसी का विरोध नहीं.

Wednesday, August 27, 2008

हाय, ये कैसी विडंबना है!

तू मेरा वर्तमान है..
मैं तुझसे
मूँह चुराती हूँ..
तुझे
देखने को भी
मेरा मन नहीं करता!
और
फिर
खोजने लगती हूँ
तुझमें अपना भविष्य.
सजाने लगती हूँ
नये सपने!
हाय, ये कैसी विडंबना है!

Sunday, August 17, 2008

कौन है और क्या तलाशती है?

वो कुछ बोलती नहीं है.
वो रोती नहीं है.
वो हरदम एकटक बस सामने वाले की
आँख में आँख डाले ताका करती है..
जाने क्या खोजती है
सामने वाले की आँख में वो.

उसकी तलाश का कोतुहल
उसकी आँखों में दिखता है..
एक अजब उदासी,
एक अजब परेशानी,
एक अजब ज़ज्ब तूफान
और एक अनजान तलाश.

चेहरे के भाव-
बस्स इन सब का
मिला जुला सना हुआ रुप.

एक कोण से सुन्दर ममत्व से परिपूर्ण,
एक कोण से विकृत
और एक अन्य से भयावह.

न कुछ बोलना,
न रोना,
न मुस्कराना.
जाने क्या तलाशती है..

सुना है अपना सुनहरा भविष्य ढ़ूढ़ती है.

वो सुनहरा भविष्य-
जिसके सपने उसने ६२ साल पहले देखे थे,
वो सपने जिसे उसी के अंशो ने
छिन्न भिन्न कर दिया.

एक उम्मीद जो कभी नहीं जाती-
वही उसकी आँखो में है
जिनसे वो दूसरों की आँखों में
अपने सपने तलाशती है शायद.

एक अंतहीन तलाश
और
अपनों की मार से
जरजर होती काया!

Wednesday, August 13, 2008

मेरी भाषा ही ऐसी नहीं है, क्या करे!

चाहे कितनी भी टिप्पणियाँ दिजिये मुझको. चाहे कैसी भी भाषा का प्रयोग किजिये. भले ही मुझे अपने समकक्ष मत आने दिजिये. नारी हूँ दमित कर दिजिये. ढकेल दिजिये पीछे. जो मन में आये सलाह दे डालिये. ’लो कमेंट’ और ले लो वाली मुद्रा में आ जाईये. चाहे तो ऐसा कह लिजिये कि कैसी नारी है, आह्ह तक नहीं कहती. नारी सुलभ आंसू तक नहीं बहाती.

मगर मैं अपनी भाषा की मर्यादा नहीं छोड़ पाऊँगी. किया होगा किसी ने किसी के साथ व्यभिचार. किया होगा किसी ने किसी के साथ बलात्कार. कितने ही आदमियों ने आदमियों की हत्या की है. कितने ही आदमियों ने आदमियों को सताया है. कितनी ही नारियों ने नारियों को सताया है. सास बहू को जला देती है. मारती है. नारी ही नारी पर अत्याचार करती है. कोठे चलाने वाली मौसियाँ भी नारी ही होती हैं. पुरुष ही पुरुष पर अत्याचार करता है. नारी ही नारी पर अत्याचार करती है. नारी ही पुरुष पर अत्याचार करती है. पुरुष ही नारी पर अत्याचार करता है. सब बहुत झमाल है. कौन किस पर अत्याचार करता है. गड़बड़झाला. ऐसा कह देते हैं कि इन्सान ही इन्सान पर अत्याचार करता है. इन्सान ही इन्सान से प्रेम करता है. इन्सान ही इन्सान से घृणा करता है. इन्सान ही इन्सान को बचाता है, इन्सान ही इन्सान को मारता है.

भाषायें अलग अलग हैं, बात वही. गाली को गाली की तरह सीधा बकना तो जरुरी नहीं. इशारे से भी बकी जा सकती है. गाली मैं बक नहीं पाती. अत्याचार मुझ पर भी हुए. खुद लड़ी मगर सिर्फ उससे जो अत्याचारी था. न तो पूरे मर्द समाज को दोषी माना और न ही पूरे नारी समाज को. न इन्सानों की पूरी जमात को. न ही सस्ता नाम कमाने के लिए अत्याचार का विभत्स रुप दिखाने चली आई. शायद कभी लेखनी में दिखाती भी तो करीने से. न कि मंडिड़ी सांड की तरह जो सामने दिखा, उसे मारने दौड़ पड़े.

मुझसे तो यह भी नहीं हो पाता कि कहीं नारी शरीर पर कुछ वैज्ञानिक विश्लेषण कर लिखा जा रहा हो, वहाँ जाकर कहूँ कि एडल्ट का लेबल लगाओ, क्योंकि नर ने लिख दिया और फिर दूसरी जगह उससे भी खराब भाषा में लिखी गंदगी पर कमेंट का इन्तजार करुँ कि आखिर कब सभ्य अपने दड़बों से निकलेंगे, क्योंकि यह नारी ने लिखा. मेरी लिए तो दोनों एक बराबर हैं, बस एक इन्सान. न नर न नारी. मैं किसी पर आक्षेप नहीं लगा रही हूँ. जो देखा वो कहा और बस अपनी मजबूरियाँ गिनवा रही हूँ. मुझमें आत्म विश्वास कितना कम है कि दो जगह दो तरह की बात कर ही नहीं पाती. इसी विश्वास को प्राप्त करने के लिए साधना में लीन हूँ.

जिस दिन यह सिद्धि प्राप्त हो जायेगी. साध्वी का रुप छोड़कर आपकी तरह खुली हवा में जी पाऊँगी. आप भी मेरे लिए प्रार्थना करिये.

तब तक, किससे क्या कहूँ. कुछ कहना ही नहीं है. बस, इतना सा कि मेरी भाषा ऐसी नहीं है, क्या करें.

खैर, कोई कुछ कहे पर अपनी भाषा तो यही है और यही रहेगी। तुम बुझते हो तो बुझो.

Monday, August 4, 2008

मैं जिनके लिए लिखती हूँ, वो मुझ पर अपना थोड़ा तो वक्त बर्बाद करें

यह क्यूँ लिख रही हूँ, मुझे खुद पता नहीं. शायद इसलिये कि मुझे कोई पढ़ नहीं रहा और न ही मेरा पास ऐसे दो लिंक हैं जो मैं दे सकूँ सनसनी मचाने के लिए.

शायद परसाई जी ने एक बार कहा था कि मैं आम जन के लिए लिखता हूँ. मैं रिक्शेवालों के लिए लिखती हूँ. फिर तुम तो लगभग रिक्शेवाले हो..मगर मैं न ही हरि शंकर परसाई हूँ और न ही बन सकती हूँ और न ही बनना चाहती हूँ. लेकिन साध्वी रितु नामक साधारण साध्वी होते हुए भी मुझे पूरा अधिकार है कि मैं सनिवेदन कहूँ कि मैं तुम्हारे लिए लिखती हूँ और स्वांतः सुखाय तो कतई नहीं, फिर मुझे क्यूँ नहीं पढ़ा जाता. मैं तो बाल मुकुन्द, तुम्हें ध्यान में रख कर लिखती हूँ फिर भी तुम मुझे नहीं पढ़ते.

तुम्हारे लिए तो कविता गरमागरम पराठे पर सफेद ताजा मख्खन डाल कर जायके से खाने के और साथ में आरेंज ज्यूस सटकाने के सिवाय कुछ भी नहीं है और वो ही मैं परोसने की कोशिश करती हूँ, फिर भी नहीं पढ़ते. मैं तो खुद ही तुम्हें बुलाने नहीं आती. मैं तो ज्ञानदत्त, शिवकुमार, समीर लाल, अनुराग और अनूप शुक्ला को भी नहीं बुलाती. जबकि उन सबको जा जा कर पढ़ती जरुर हूँ बिना उनके बुलाये. वो मुझे पसंद हैं तुम्हारे जैसे ही तो. बार बार जाती हूँ.

मुझे तो साहित्य क्या होता है, यही नहीं पता और न ही २२ साल की कच्ची उम्र में मुझे साहित्यकार होने का झूठा दम्भ है, कि मैं कह सकूँ कि तुम क्या लिख रहे हो. यह दम्भ तो प्रेम चन्द से लेकर बड़े बड़े साहित्यकारों में नहीं आया मगर आजकल आसपास दिख रहा है. उससे क्या करना है. मुझे तो उन तीस बुद्धिजीवी प्रशंसक टिप्पणीकारों से भी कुछ नहीं कहना क्योंकि मैं तो खुद ऐसे ग्रुप मे कभी नहीं रही.शुरुवात मेरी उस गैंग से नहीं हुई जहाँ से इस तरह के नई साहित्यकार क्लेमेंट की हुई..सारे नव कवि मिल कर एक दूसरे को सराहें. तो मैं क्या करुँ मैं तो तुम्हारे भरोसे ही हूँ, मेरे बालमुकुन्द और लालमुकुन्द.

न मेरे पति हैं, न बच्चे. अगर तुम वाह वाही करोगे तो मैं ही खुश होंगी.और किसे दिखाऊँगी. मेरा लिखने का उद्देश्य सेवा करना है न कि साहित्य रचना. मेरे बस में वो नहीं, तुमने शोले देखी है.फिल्म फेयर एवार्ड जीती थी और तुम वाह वाह कर रहे थे. तुम शिव के व्यंग्य समझ सकते हो, तुम्हें समीर लाल का लिखा समझ आ जाता है. तुम सीमा दानी के चित्रकारी समझ जाते हो..राकेश खण्डॆलवाल की गहरी गीत संरचना समझ जाते हो, ज्ञान दत्त का ज्ञान जानते हो और फुरसतिया की फुरसत का लुत्फ उठाते हो. लेकिन यह सब समझ जाने से क्या होता है जब तुम मेरे लिखे को समझ कर न समझ बने रहते हो. कोई टिप्पणी नहीं करते. पढ़ा करो न!

मैं जो भी हूँ और जो भी लिखती हूँ, मैं चहाती हूँ सब उसे पढ़ें और टिप्पणी करें. उसके लिए इससे मुफीद जगह और कौन सी है वरना तो डायरी लिख लेती. मगर वो साहित्यकार जो सबको पढ़वाना नहीं चाहते और डायरी की जगह गलत जगह ब्लाग पर लिखते हैं, उन्हें तुम पढ़ते हो और पैरोड़ी करते हो..क्यूँ आखिर क्यूँ. जबाब दो.

अगर तुम्हें मेरा लिखा पसंद आये जो कि तुम्हें आता है तो कुछ समय तो खर्चो. एक टिप्पणी दो. उसी का तो इन्तजार है भले ही मैं कुछ बोलूं या कोई छटाक भर कर आत्मदम्भी चार किताब पढ़ा छुटकू साहित्यकार का झूठा लबादा ओढ़े व्यक्ति कहे. भला बुरा जैसा भी लगा हो झेल लेना मगर मैं अपने को झूठमूठ का स्वयंभू साहित्यकार घोषित नहीं कर सकती, मेरे बालमुकुन्द और लालमुकुन्द.

आओ न और टिपियायो न!

Monday, July 21, 2008

जनक कौन?

बढ़ती आबादी

की

सहानुभूतिराहित
समवेदनाशून्य प्रवृतियाँ,

विषम सामाजिक परिस्थियाँ

और

सामूहिक भृष्टाचार

क्या यही

अपराधों
एवं
दुष्कर्मों

का

जनक नहीं??

Thursday, July 17, 2008

मोहल्ला और कविता

कुंठा से मन कडुवाया..
शब्दों ने आकार लिया..
ओह!
शायद कविता रच गई..


अब कुछ गोड़ पसार लें..
तम्बाखू खंगार लें..
मोहल्ले के नुक्कड़ वाली
पनवाड़ी की दुकान पर
शाम को बतियायेंगे
इस कविता को सुनायेंगे...


मोहल्ले के तो हम मुन्नु हैं
कौन बूझता है
हमारा कवि वाला नाम?


खुद विवाद उठायेंगे कविता पर..
खूब गाली बकेंगे
दूसरे साथ देंगे..


विवाद और कोहराम होगा..
कवि बदनाम होगा..


कवि और कविता का नाम होगा..
जल्द ही हाथों मे इनाम होगा!!

Wednesday, July 16, 2008

हाय!! मेरा भारत महान!

एक दूसरे को पीछे खींचते...
एक दूसरे को नीचे दिखाते...


दूसरों को दुखी देख
खुशी मनाते लोग...
नज़र से बचने चुपचाप
खुशी मनाते लोग...


अपने से ज्यादा
दूसरों मे तल्लीन..
सामने वाले की
सफलता पर गमगीन..


आपस में परेशान
कुंठा में
धरती को बनाते पीकदान...


एक आँख बँद किये
सोने में भी नाहक हैरान..
दोनों आँखों का बंद होना
याने
अब ठौर है शमशान...


हाय!! मेरा भारत महान!

Tuesday, June 3, 2008

अभिव्यक्त करुँ या मौन धरुँ

अभिव्यक्त करुँ
या मौन धरुँ
कब कोई
यहाँ पर सुनता है

मेरे सब
सुख दुख मेरे हैं
कैसे माने
हम तेरे हैं

पर पीड़ा से
विचलित होकर
कब कोई
यहाँ सर धुनता है

कब कौन
किसी का होता है
क्यूँ जहर
यहाँ पर बोता है.

अपनी दुनिया में
खुश हो लेंगे
बस ख्वाब
यहाँ वो बुनता है

Monday, May 26, 2008

खुदकुशी

जिन्दगी के खेल में
शतरंज की बिसात पर
यूँ भी
किसी को मात
किसी को शाह

फिर
क्या सोच कर
की
तुमने
खुदकुशी.

Friday, May 2, 2008

डर

सुबह सुबह
आँजुरी में अपने
चमकती धूप लिए
अँधेरी रात की गली के
मुहाने पर आकर
ठिठकी खड़ी है-
शायद...
मेरी आँखों की नमीं से
वो भी डरी है.

Tuesday, April 29, 2008

हम किससे कहें?

शेर इंकलाबी वो पढ़ते रहे..
मंच पर से वो ही गरजते रहे...
वो भी डरते रहे..और
हम भी डरते रहे...
यह व्यथा है..हमारी..
हम किससे कहें???.

Thursday, February 28, 2008

आखिर क्यूँ??

आखिर क्यूँ??
आखिर क्यूँ यह अहसास है
जब से उसने मुझे देखा
वो यहीं कहीं
मेरे आस पास है....

मैं जानती हूँ कि
वो मेरा हो नहीं सकता..
उसकी अपनी एक दुनिया है
जिसे वो खो नहीं सकता...

मगर फिर भी
न जाने क्यूँ...
आखिर क्यूँ यह अहसास है
जब से उसने मुझे देखा
वो यहीं कहीं
मेरे आस पास है....

Tuesday, February 19, 2008

मेरी पनीली आँखें…

कभी कुछ ख्वाब पलते थे
मेरी इन पनीली आँखों में.
डूब कर वो उतरता था…
खो जाता था दूर…
कहीं बहुत गहरे..
मैं डर जाती..
वो हंस देता
मैं रो देती..

आँसूओं के संग संग
मानो वो भी निकल आता
मेरे आँसू पोंछता
प्यार से गाल थपथपाता
और कहता, ‘ऐ पगली’

एकाएक जाने कहाँ
खो गया वो…
किस मोड़ पर साथ मेरा
छोड़ गया वो…

तब से मेरी दुनिया
बंद है इस चारदिवारी में..
अब वो नहीं कहता
मगर सारी दुनिया मुझसे
कहती है, ‘ऐ पगली’

कोई मुझे इस
पागलखाने की कैद से आजाद करा दे..
फिर नहीं देखूँगी कोई ख्वाब..
यूँ भी रो रो कर
सुखा दिये हैं मैंने अपने आँसू
मेरी आँखें भी अब
पनीली न रहीं……