
कार का भर्राता हार्न
कटे सर की गुड़िया
लाठी टेक चलता लाचार बाप
टकटकी लगाये माँ की आँख
भाई की सूनी कलाई
माथे का सिन्दुर पौंछती शहीद की बेवा
अशिक्षित बाल मजदूर
दादी की थमती सांस
दवा की दुकान
लंगर में बंटता प्रसाद
दारु पिया बेसुध पति
माँ की नीलामी
देश की संसद
भट्टी में पिधलता लाल लोहा..
मैं मजबूर
खुद से दूर
चकनाचूर!!!
मेरी सोच
क्रूर-क्रूर-क्रूर!!!
8 comments:
तो क्या सोचती थी जिंदगी का प्रिंट-आउट रंगीन निकलेगा ?
ज़रा सोचिये जब आदमी वनमानुष था तब ज़िंदगी को बचाये रखने की कैसी परिस्थितियाँ रही होंगी?
आपको क्या लगा कि सब कुछ आसन है जिन्दगी जीने के लिये मरना जरुरी है ।
समझ में नहीं आता किस तरह आपकी तारीफ करें, आपकी इन पक्तियों ने कई दर्द उकेर दिए हैं।
जिंदगी के और भी आयाम हैं साध्वीजी....कभी उन पर भी कहें।
मगर यहां जो पेश किया, वह हकीक़त ज्यादा नुमांयां होती है।
बहुत खूब..
satya vachan saadhvi ji
आप बुरा न मानें लेकिन यह बात इतनी बार दुहराई जा चुकी है कि अब उपहास्पद लगने लगी हैं.
अगर आप साध्वी हैं तो फिर डर और संकोच कैसा । जो कहना है सामने आकर कहिए न। अन्यथा लगता है हम किसी छद्म के छद्म विचार ही पढ़ रहे हैं। और अगर आप रितू बावेजा हैं,तो अपने बारे में थोड़ा और बताइए।
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