-१-
लिख रहे हैं जिन्दगी के रुप को
रोज होती सांस की इस लूट को
देखते ही देखते सब चुक गया
ढो रहे हैं हड्डियों के ठूंठ को.
-२-
देखती हूँ रोज अपने राम को
और उसमें ही बसे रहमान को
बांटते हैं धरम के जो नाम पर
क्या सजा दें आज उस शैतान को.
नवरात्रे की मंगलकामनाऐं.