Tuesday, September 30, 2008

साँस की लूट

दो मुक्तक प्रस्तुत कर रही हूँ.



-१-

लिख रहे हैं जिन्दगी के रुप को
रोज होती सांस की इस लूट को
देखते ही देखते सब चुक गया
ढो रहे हैं हड्डियों के ठूंठ को.

-२-

देखती हूँ रोज अपने राम को
और उसमें ही बसे रहमान को
बांटते हैं धरम के जो नाम पर
क्या सजा दें आज उस शैतान को.



नवरात्रे की मंगलकामनाऐं.

Sunday, September 28, 2008

तय करो किस ओर हो

तय करो किस ओर हो
इस ओर हो, उस ओर हो.

बातों को मनवाना हो तो
तर्कों में कुछ जोर हो.
या फिर
कुछ ऐसा कर जाओ कि
सदियों तक उसका शोर हो.

तय करो किस ओर हो
इस ओर हो, उस ओर हो.