तिलमिला जाता हूँ मैं
हद कर देती हो
क्या शर्तों पर जीवन जीने लगूँ
या मान लूँ कि
मेरा कोई अस्तित्व नहीं,
बिन तुम्हारी सहमति के
क्या चाहती हो तुम
मैं कहता हूँ वो तुम मानती नहीं
तुम कहती हो कि तुम जानती नहीं
कोई तो रास्ता होगा.....
सोचो न!!!
बताओ न!!!
मैं जीना चाहता हूँ-
अपनी शर्तों पर.
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6 comments:
बहुत खूब!!
हम सभी अपनी ही शर्तों पर जीना चाहते हैं पर एक मध्यमार्ग निकालने हम बहुत ही कम कबूल कर पाते हैं, अपनी शर्तो पर हम इसलिए जीना चाहते है कि हम अहं के शिकार होते है।
यह "अहं" ही तो जड़ है!!
बहुत सरल और सहज रूप मे जीवन की अहम बात पर ध्यान दिया.... बहुत सुन्दर !
अपनी शर्तों पर तो हम जी ही नहीं सकते.जीवन के हर मोड़ पर हर रिश्ते के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है.
बहुत खूब!
एक बार फिर सुंदर रचना हेतु बधाईयाँ!बहुत सुंदर और सारगर्भीत है कविता.
हमें कुछ चाहिये महसूस होता ये रहा अक्सर
मगर वो चाहिये था सिर्फ़ अपनी खास शर्तों पर
अगर हमने समर्पण का जरा साहस किया होता ????????????
सोचो न!!!
बताओ न!!!
यह संवाद क्यों
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