कभी कुछ ख्वाब पलते थे
मेरी इन पनीली आँखों में.
डूब कर वो उतरता था…
खो जाता था दूर…
कहीं बहुत गहरे..
मैं डर जाती..
वो हंस देता
मैं रो देती..
आँसूओं के संग संग
मानो वो भी निकल आता
मेरे आँसू पोंछता
प्यार से गाल थपथपाता
और कहता, ‘ऐ पगली’
एकाएक जाने कहाँ
खो गया वो…
किस मोड़ पर साथ मेरा
छोड़ गया वो…
तब से मेरी दुनिया
बंद है इस चारदिवारी में..
अब वो नहीं कहता
मगर सारी दुनिया मुझसे
कहती है, ‘ऐ पगली’
कोई मुझे इस
पागलखाने की कैद से आजाद करा दे..
फिर नहीं देखूँगी कोई ख्वाब..
यूँ भी रो रो कर
सुखा दिये हैं मैंने अपने आँसू
मेरी आँखें भी अब
पनीली न रहीं……
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7 comments:
sundar bhaav...
बहुत सुंदर!! खोए की तलाश, फ़िर मिल जाने की आस!!
‘ऐ पगली’ कितना अच्छा लिखती हो. आप की कविता भाव,शब्द सब सुंदर है.
अब वो नहीं कहता
मगर सारी दुनिया मुझसे
कहती है, ‘ऐ पगली’
bahut sundar abhivyakti hai prem-virah me doobe dil ka.
आँसूओं के संग संग
मानो वो भी निकल आता
मेरे आँसू पोंछता
प्रेम और वियोग से आलोड़ित मर्मस्पर्शी रचना.
फिर नहीं देखूँगी कोई ख्वाब..
यूँ भी रो रो कर
सुखा दिये हैं मैंने अपने आँसू
bahut hi marmsparshi andaz hai dard-e-bayani ka.par aise thode hi hota hai rituji ki sapne hi na dekhe..
सुन्दर भाव भरी रचना... पसन्द आई
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